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शनिवार, सितंबर 18, 2010

मैं न किसी से डरता हूँ : दीनदयाल शर्मा की शिशुकविता

(सौवीं पोस्ट)

मैं न किसी से डरता हूँ




चूहा बोला - "माँ जी, मैं तो,
आज पतंग उड़ाऊँगा!
डोर बहुत मज़बूत बाँधकर,
मैं भी पेंच लड़ाऊँगा!"


माँ जी बोलीं - "तुम बच्चे हो,
बात पेंच की करते हो!
मोटी बिल्ली घूम रही है,
क्या उससे ना डरते हो?"

"ऐसे-ऐसों को तो दिनभर,
ख़ूब छकाया करता हूँ,
चूहा बोला - "बिल्ली क्या है?
मैं न किसी से डरता हूँ।"



कविता : दीनदयाल शर्मा


चित्रसज्जा : डॉ.रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"

सोमवार, मई 17, 2010

सबके मन को भाए : दीनदयाल शर्मा की एक बालकविता

सबके मन को भाए


इसके बिन है सरकस सूना,
दर्शक एक न आए।
उल्टे-सीधे कपड़े पहने,
करतब ख़ूब दिखाए।

गुमसुम कभी न देखा इसको,
हर पल यह मुस्काए।
ख़ुद तो हँसता ही रहता है,
सबको ख़ूब हँसाए।

गिरते-गिरते बच जाता यह,
पल-पल में इतराए।
जोकर ही हो सकता है, जो
सबके मन को भाए।

दीनदयाल शर्मा

(इस कविता के प्रस्तुतीकरण पर रीझकर शर्मा जी ने यह कली उपहार में भेजी है!)

(इस कविता के प्रस्तुतीकरण पर रीझकर शर्मा जी ने यह कली उपहार में भेजी है!)

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