शाम घिरती आ रही थी। नीलू की नन्ही-सी गुड़िया खिड़की में बैठे-बैठे उदास होने लगी। मम्मी अलग परेशान थीं - 'अभी-अभी तो वो सडक़ पर साइकिल चला रही थी ... ... आख़िर जा कहाँ सकती है ... ... बस पिछली सडक़ पर चली गई होगी।'
मम्मी बाहर आईं और उसे ढूँढने के लिए निकल पड़ीं। कोनेवाले घर से कुत्ता भौंका 'भौं-भौं'। नीलू वहाँ नहीं थी। बड़े बगीचेवाला घर भी आ गया। नीलू वहाँ भी नहीं थी। सड़क ख़त्म होने तक नीलू कहीं भी नहीं थी।
'ज़रूर कहीं छुप गई होगी', मम्मी ने सोचा, 'शायद बोगनविला की झाड़ियों के पीछे छिपी हो।' मम्मी ने डालियाँ हटाकर देखा। उन्हें दो-चार काँटें भी चुभ गए, पर नीलू नहीं मिली। 'ठीक है, वह गैरेज में रहनेवाले रामू काका के घर की तरफ चली गई होगी।'
''रामू काका, नीलू आपके यहाँ आई है क्या?'' मम्मी ने पुकारकर पूछा।
''नहीं मेम साहब, वो तो सामने की सडक़ पर साइकिल चला रही थी।'' रामू काका ने बताया।
मम्मी चुपचाप घर लौट आईं। बाहर मोटर-साइकिल बोली। पापा आ गए थे। नीलू की साइकिल बाहर न देखकर उन्होंने पूछा, ''नीलू साइकिल ले कर कहाँ गई? रास्ते में सडक़ पर भी नहीं दिखाई दी।''
मम्मी कुछ भी नहीं बोल पाईं। उन्हें तो रोना आ रहा था। अभी-अभी ही तो दूध पीकर बाहर गई थी, साइकिल चलाने।
''अरे कहाँ चली जाएगी? ... ... यहाँ तो सभी घर अपनी पहचान के हैं। अपनी सहेली ॠचा के यहाँ होगी।'' यह कहते हुए पापा बिना चाय पिए ही ॠचा के यहाँ नीलू का पता करने के लिए चल दिए। नीलू वहाँ भी नहीं थी। अब तक काफी देर चुकी थी। अँधेरा होने लगा था। इतनी देर तक तो वह कभी बाहर नहीं रहती थी। अब तक तो उसे हर हाल में वापस आ जाना चाहिए था।
मम्मी-पापा की परेशानी से बेख़बर नीलू चौड़ी सड़क पर फर्राटे से साइकिल दौड़ा रही थी। पिछले साल यह साइकिल उसे पहली क्लास में फर्स्ट आने पर मिली थी। अब तक वह साइकिल चलाने में अच्छी तरह माहिर हो चुकी थी। लेकिन घर के सामने की सड़क और पार्क के चारों तरफ की सड़कें छोड़कर आज तक वह साइकिल पर कहीं भी नहीं गई। सिर्फ़ अपनी सडक़ पर खड़े-खड़े देखा करती करती थी कि बड़े बच्चे कैसे शान से चौड़ी सड़क पर तेज़ी से साइकिल दौड़ाते हैं। बड़े क्लास की दीदियाँ कितनी शान से साइकिल लेकर स्कूल के गेट में घुसती हैं। लेकिन मम्मी तो उसे साइकिल में हवा भरवाने के लिए दूसरे नुक्कड़ तक अकेले जाने से मना करती हैं। इस काम के लिए भी उसे रामू काका का मुँह ताकना पड़ता था। आज वह आँख बचाकर बिना पूछे इस चौड़ी सड़क की सैर करने के निकल आई थी। रास्ता उसका जाना-पहचाना था। इसी से तो वह रोज़ स्कूल जाती थी। ट्रैफ़िक की लाइटों के बारे में उसे अच्छी तरह मालूम था। सड़क पार करना भी उसके स्कूल में सिखा दिया गया था, फिर उसे बड़ी सड़क पर डर क्यों लगता? हाँ, जब कोई कार तेज़ी से उसके पास से गुजरती, तो उसे थोड़ी घबराहट ज़रूर होती, पर वह हैंडिल टेढ़ा-मेढ़ा करके अपने आपको सँभाल ही लेती थी।
आज अपने आपको खुली सड़क पर अकेला पाकर नीलू की ख़ुशी का ठिकाना न था। वो ख़ूब तेज़ी से साइकिल चला रही थी। उसके बाल हवा में पीछे उड़ रहे थे और वह बिल्कुल रेशमा दीदी-जैसी लग रही थी।
अचानक तेज़ी से आती एक कार ज़ोर से ब्रेक लगाए जाने की आवाज़ के साथ उसके बिल्कुल पास आकर रुकी, ''क्या इस तरह साइकिल चलाई जाती है?'' एक सज्जन ने कार की खिड़की से सिर निकाल कर गुस्से से पूछा। डर के मारे नीलू के हाथ से साइकिल छूट गयी। साइकिल एक तरफ गिरी और नीलू दूसरी तरफ। शर्म के मारे वह जल्दी से उठ गई, पर उसके पैर में बहुत ज़ोर से दर्द होने लगा था। घुटने में चोट लगी थी और कोहनियाँ भी छिल गई थीं। ट्रैफ़िक से भरी उस सडक़ पर पल-भर में ही भीड़ जमा हो गई। पुलिसमैन सीटी बजा-बजाकर सबको हटाने लगा। नीलू ने झट से साइकिल उठाई और उसका मन हुआ कि वह तुरंत अपने घर पहुँच जाए। तभी उसे भीड़ को चीरते हुए पापा दिखाई दे गए। वह दौड़कर पापा से लिपट गई। वे सँभालकर उसे उसकी साइकिल के साथ किनारे ले आए। नीलू की रुलाई फूट पड़ी।
थोड़े प्यार और थोड़ी नाराज़गी के साथ पापा ने पूछा, ''नीलू तुम घर में बताए बिना अकेले इस सड़क पर क्यों आ गईं?''
''इसीलिये तो मैं बिना बताए आई थी'', नीलू ने आँसू पोंछते हुए कहा, ''पापा आप ऐसे सवाल पूछते हैं। इसलिये मेरी आपसे पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती। मैं देखना चाहती थी कि मुझे बड़ी सड़क पर साइकिल चलाना आता भी है या नहीं। बस हिम्मत करके बिना बताए ही निकल पड़ी।''
''हिम्मत कर के चुपचाप निकलने से बेहतर तो यह था कि तुम हिम्मत कर के हमें बता देतीं कि तुम बड़ी सड़क पर अपना इम्तहान लेना चाहती हो। हम रेशमा दीदी को तुम्हारे साथ भेज देते। दोनों साथ में होतीं, तो न तुम्हें परेशानी होती, न हमें और न बड़ी सड़क पर चलनेवाले लोगों को'', पापा ने समझाया।
वे लोग अब तक घर आ गये थे। ऋचा और रेशमा दीदी अभी तक वहीं बैठी थीं। नीलू को देखकर वे सब दौड़कर उसके पास आ गईं। पापा ने कहा, ''कल से नीलू रेशमा दीदी के साथ साइकिल से स्कूल जाया करेगी।''
''अभी से अंकल, अभी तो यह दूसर दर्जे में ही पढ़ती है। मैंने तो पाँचवे दर्जे से साइकिल से स्कूल जाना शुरू किया था।'' ''हाँ रेशमा, नीलू अब ठीक से साइकिल चला लेती है। मैं भी कल साथ चलूँगा, ताकि देख सकूँ कि नीलू ठीक से साइकिल चला रही है या नहीं।''
''ठीक है।'' रेशमा दीदी ने कहा।
नीलू ख़ुश होकर दौड़ी और खिड़की में रखी गुड़िया को गोदी में उठा लिया। पल-भर में ही गुड़िया की सारी उदासी दूर हो गई। ऐसा लगा कि गुड़िया भी नीलू के साथ मुस्कराने लगी है।
9 टिप्पणियां:
कहानी रोचक , कौतूहल से परिपूर्ण । ...और कानाबाती कुर्र की तरह एक संदेश भी ध्वनित करती हुई । लेखिका के साथ साथ आपको भी बधाई । कहानी बच्चोँ की प्रिय विधा है । आपने इस आवश्यकता को अनुभव किया ,निःसंदेह आप साधुवाद के सुपात्र हैँ ।
बहुत प्यारी मासूम सी कहानी ....
nice story
कित्ती प्यारी कहानी...अच्छी लगी.
बहुत सुंदर कहानी जी धन्यवाद
चलिए... नीलू की ख्वाहिश पूरी हुई... :)
ब्लॉग के साइडबार में नंदन पत्रिका का लिंक देख कर मन प्रसन्न हो गया.. एकदम से बचपन याद आ गया.. नंदन, चम्पक और सुमन सौरभ मेरे प्रिय पत्रिकाएं थी ... और लोटपोट भी, जिसमे काजल कुमार जी के कार्टून होते थे... :)
बहुत ही सहजता से प्रस्तुत की गई एक सुन्दर कथा!
शैली की दृष्टि से बहता इसका प्रवाह तो देखते ही बनता है!
सैयद साहब!
नीलू की ख़्वाहिश पूरी होना ही इस कहानी की
सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है!
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यही कारण है कि पहली कहानी के रूप में
इस कहानी को "सरस पायस" का साथ मिला!
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