लगा हुआ है इनका ढेर। ठेले पर बिकते हैं बेर।। रहते हैं काँटों के संग। इनके हैं मनमोहक रंग।। जो हरियल हैं, वे कच्चे हैं। जो पीले हैं, वे पक्के हैं।। ये सबके मन को ललचाते। हम बच्चों को बहुत लुभाते।। शंकर जी को भोग लगाते। व्रत में हम बेरों को खाते।। ऋतु बसंत की मन भाई है। अपनी बेरी गदराई है।। डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक |
शनिवार, फ़रवरी 26, 2011
अपनी बेरी गदराई है : डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक की बालकविता
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7 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर बेर दिखा दिये जी, खाये तो सदियां हो गई, वेसे आप ने बेर दिखाये ओर गदराई बेरी की बात कर रहे हे?
कविता बहुत सुंदर लगी बिल्कुल मिठ्टे बेरो की तरह , धन्यवाद
वाकई। बेरों का मौसम शिवरात्रि के आगमन का प्रतीक है। अच्छे बेर खिलाये 'मयंक' जी ने।
सुंदर मनभावन लगी रचना ....
बहुत खूब भाई जी ! शुभकामनायें आपको !
क्या नसीब पाया है बेरों ने!
बेरों पर रची गई रचना
लिखी तो नन्हे सुमन के लिए थी!
मगर सरस पायस पर प्रकाशित हो गई!
रावेन्दकुमार रवि जी का आभार!
इतने सुन्दर ढंग से
मैं इसे अपने ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं कर सकता था!
सुंदर मनभावन लगी रचना| धन्यवाद|
जीतनी प्यारी कविता उतने ही सुन्दर चित्र बेर देख कर मुह में पानी आगया ..
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