पंछी भी कभी-कभी तो छाँव-छाँव चलता है!
पैर हैं न पंख हैं, फिर भी यह हवा चले!
चलनेवाले कैसे-कैसे, देखो किस तरह चले!
अपने आप चलते-चलते मेज़ पर से गिर पड़ी!
माधव ने कहा था, "कल भी चल रही थी यह घड़ी!"
माधव ने बताया, "बाबू, फ़ोन फिर से चल पड़ा!
मैंने समझा, नंगे पाँव धूप में निकल पड़ा!"
गुंडों की लड़ाई में तो हॉकियाँ भी चलती हैं!
कहते हैं, कभी-कभी चालाकियाँ भी चलती हैं!
ठाँय-ठाँय करती, सनसनाती गोलियाँ चलीं!
बिन सड़क के, बस्तियों में कितनी बोलियाँ चलीं!
हिलती-डुलती भी नहीं, मगर दुकान चलती है!
मुँह में है बँधी हुई, मगर ज़बान चलती है!
गर्मी, सर्दी, आँधी, पानी, एक जैसा चलता है!
रात हो या दिन हो कहते हैं कि पैसा चलता है!
दाएँ, बाएँ हर तरफ रिवाज़ चलते रहते हैं!
बैठे-बैठे भी तो काम-काज चलते रहते हैं!
2 टिप्पणियां:
शुक्रिया इसे पढाने के लिए.
आभार.
अद्भुत...गुलजार साहेब की एक अच्छी कविता से रु-व -रु करवाने के लिए धन्यवाद
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