शुक्रवार, मई 14, 2010
बैठ खेत में इसको खाया : डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' की एक बालकविता
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13 टिप्पणियां:
अरे वाह...!
आज सुबह ही इसको लिखा,
आपको भेजा और दोपहर को ही
प्रकाशित भी कर दिया!
इस बालकविता को आपका प्यार मिला!
सधन्यवाद आभार!
nice
बहुत बढ़िया...इसको पढ़कर तो तरबूज खाने का मन करने लगा.
__________________
'पाखी की दुनिया' में- जब अख़बार में हुई पाखी की चर्चा !!
अच्छा , शाश्त्री अंकल ने कल लीची पर कविता लिखी , आज तरबूज पर लिखा , देखकर खाने का दिल कर रहा है , मैंने अभी तक तरबूज नहीं खाए है , पापा आज लायेंगे तब मै इसे खाकर अपनी प्रतिक्रिया दूंगा
http://madhavrai.blogspot.com/
पापा का ब्लॉग- qsba.blogspot.com
आदरणीय मयंक जी!
सामयिक रचनाओं को "सरस पायस" पर
अविलंब प्रकाशित करने का प्रयास किया जाता है!
--
आपकी कविता के इतनी जल्दी प्रकाशन का
एक कारण यह भी रहा कि
आपने "सरस पायस" पर
रचना प्रकाशन के सभी नियमों को ध्यान में रखकर,
इतना श्रम करके फ़ोटो भी तैयार करके भेजे थे!
--
आशा है : भविष्य में भी
"सरस पायस" को आपका भी स्नेह इसी प्रकार मिलता रहेगा!
ये चित्र और कविता दोनों ही मनोरम.....मन ललचा जाता है...
गर्मी के मौसम में तरबूज से बढ़िया फल और कोई नहीं! लाल लाल तरबूज देखकर मन ललचाया! सुन्दर प्रस्तुती!
तरबूजे पर जीवंत कविता के लिए बधाई.
मेरा भी मन खाने को कर रहा है।
बहुत सुंदर कविता शास्त्री जी, हमारे यहां भी आ गये तरबुज लेकिन अभी यहां सर्दी है, ओर तरबुज भी करीब ७० रुपये का एक किलो है, कुछ दिनो मै गर्मी आयेगी तो मीठे तरबुज हम भी खाये गे अभी तो चित्र देख कर ही जी भर लिया
ye to apne khet yaad aa gaye mujhe.. :)
मूँह में पानी आ गया शास्त्री जी………………बहुत ही लाल लगाये हैं……………तरबूज का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है।
kha kar hamne pyas bujhaee,
chehre par fir raunak chaee.
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